पूजा की परिभाषा,पूजा के प्रकार,पूजा के भेद,पूजा का फल,पूजा में फल प्राप्ति के उपाय।
पूजा की परिभाषा:
भगवान के गुणों का प्रकाशन करने वाली और उनके दिव्य स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाली सेवा, स्तुति, प्रार्थना, प्रणाम एवं श्रद्धा की जो विधिपूर्वक प्रक्रिया है, वही पूजा कहलाती है।
संक्षेप में कहें तो, सेवक और ईश्वर के बीच की आत्मिक एकता ही पूजा है।
पूजा का मूल तत्व है भक्ति — भक्ति के बिना पूजा निष्फल होती है।
न लाभं प्राप्नुयति हरिः कर्मकाण्डैः कदाचन ।
साधकः स्वहितार्थाय तैरेव फलमश्नुते नरः॥
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पूजा, भजन, यज्ञ-याग से भगवान को नहीं, | भक्त को ही कल्याण होता है। |
पूजा दो अंगों में विभक्त होती है —
बाह्य पूजा
आंतरिक पूजा
बाह्य पूजा:
बाह्य पूजा दो प्रकार की होती है:
1. वैदिक पूजा:
वेदों के आदेश के अनुसार जो पूजा की जाती है, उसे वैदिक पूजा कहा जाता है।
2. तांत्रिक पूजा:
तंत्रशास्त्र के नियमों के अनुसार जो पूजा संपन्न होती है, वह तांत्रिक पूजा कहलाती है।
आंतरिक पूजा:
जो पूजा मन की गहन भक्ति से की जाती है, उसे आंतरिक पूजा कहा जाता है। इसमें बाह्य सामग्रियों की अपेक्षा भाव और ध्यान को प्रधानता दी जाती है।
पूजा के भेद:
1. मूर्तिपूजा:
भगवान की मूर्ति या प्रतीक के सामने की गई पूजा को मूर्तिपूजा कहते हैं।
प्राचीन ऋषियों ने चंचल मन को एकाग्र और भगवत्-चिन्तन में लगाने के लिए इस पूजा की व्यवस्था की थी।
2. मानस पूजा:
ध्यान में या मानसिक रूप से भगवान की जो पूजा की जाती है, वही मानस पूजा कहलाती है। मानस पूजा में भक्त अपने मन में भगवान की मूर्ति की कल्पना करता है और ध्यान करता है।
उद्देश्य के अनुसार पूजा के प्रकार:
1. काम्य पूजा:
व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति हेतु—जैसे धन, संतान, विद्या, बुद्धि या रोग से मुक्ति पाने के लिए की गई पूजा।
2. निष्काम पूजा — ऐसी पूजा, यज्ञ, सेवा आदि जो किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत कामना या लाभ की इच्छा के बिना की जाए।
🔸 इनमें निष्काम पूजा को श्रेष्ठतम माना गया है।
सामग्री के आधार पर पूजा के प्रकार:
1. पंचोपचार पूजा:
पाँच सामग्रियों से की गई पूजा — चंदन, जल, नैवेद्य, धूप-दीप, पुष्प।
ये पंचमहाभूतों के प्रतीक हैं — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
साथ ही ये शरीर, मन, प्राण, भावना और अहंकार का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।
2. बहु-उपचार पूजा:
जब अनेक सामग्रियों से पूजा की जाती है — जैसे दस, सौ या हजार प्रकार के उपचार।
सार्वजनिक पूजा में दशोपचार या षोडशोपचार प्रचलित हैं।
दशोपचार पूजा:
पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, मधुपर्क, पुनराचमन, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
षोडशोपचार पूजा:
आसन, स्वागत, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, चंदन, नैवेद्य, ताम्बूल आदि।
देवियों को शंख, सिन्दूर, कंघी, काजल, आलता इत्यादि भी अर्पित किए जाते हैं।
3. स्वल्पोपचार पूजा:
जब उचित सामग्री न उपलब्ध हो तो सीमित वस्तुओं से की गई पूजा।
4. मानसिक पूजा (मानस पूजा): उपचारहीन पूजा।
उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचे साधक जब ध्यान और मन से भगवान की पूजा करते हैं — इसे उपचारहीन पूजा भी कहा जाता है।
पूजा के स्वरूप के अनुसार भेद:
1. व्यक्तिगत पूजा:
जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अकेले साधना हेतु पूजा करता है।
2. सामूहिक पूजा:
जब एक पुरोहित के नेतृत्व में कई व्यक्ति एक साथ पूजा करते हैं।
सर्वोत्तम पूजा:
जब भगवान को भक्ति रूपी अश्रु और भावरूपी नैवेद्य अर्पित किए जाते हैं, तभी वह पूजा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
पूजा में धूप का महत्व:
प्राचीन काल से ही धूप या धूना जलाने की परंपरा रही है।
यह घर में सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखता है और शांति व सौहार्द का वातावरण उत्पन्न करता है।
👉 बाँस की लकड़ी से बनी अगरबत्ती पूजा में वर्जित मानी जाती है।
इसलिए बाँस रहित धूप या धूना का प्रयोग करना चाहिए।
पूजा और उसका फल:
पूजा करना उपासक का अधिकार है, लेकिन फल प्राप्ति भगवान की कृपा पर निर्भर है।
कुछ लोग यह भ्रम पाल लेते हैं कि पूजा का फल उनका अधिकार है—जब फल नहीं मिलता तो ईश्वर से विमुख हो जाते हैं।
👉 यह दृष्टिकोण अशास्त्रीय और अनुचित है।
फल तभी प्राप्त होता है जब:
पूजा विधिपूर्वक और श्रद्धा सहित की जाती है।
भगवान पूजा को स्वीकार करते हैं।
भगवान पूजा क्यों अस्वीकार करते हैं?
मांस, मछली, मदिरा आदि का सेवन।
जीव-हत्या या उसमें सहभागिता।
भक्ति, श्रद्धा और प्रेम का अभाव।
👉 जीवों की हत्या ईश्वर की संतानों के प्रति अपराध है। इससे हम अशुभ फल के पात्र बनते हैं।
पूजा में फल प्राप्ति के उपाय:
मांस, मछली, मदिरा का त्याग कर सात्त्विक जीवन अपनाएँ।
जीव-हत्या से दूर रहें।
काम, क्रोध, लोभ जैसे दोषों से मुक्त होकर प्रेम और श्रद्धा से पूजा करें।
शास्त्रों के अनुसार विधिपूर्वक पूजा करें।
साथ ही धैर्य, क्षमा, संयम, सत्यता, पवित्रता आदि सद्गुणों को जीवन में अपनाना आवश्यक है।
मंत्र और उच्चारण का महत्व:
मंत्र" संस्कृत के "मन" (मन/सोचना या ध्यान करना) और "त्र" (रक्षा या साधन) से बना शब्द है, जिसका अर्थ है मन का साधन — अर्थात् पवित्र सूत्र, प्रार्थना या आदर्श वाक्य। धार्मिक रूप से, मंत्र वह पवित्र वाक्य है जो ईश्वर अथवा किसी दैवी शक्ति के स्मरण और आह्वान हेतु उच्चारित किया जाता है। इसकी मूल भाषा संस्कृत है, पर यह अन्य भाषाओं में भी हो सकता है। पूजा या जप में इसका शुद्ध उच्चारण और अर्थ की समझ अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि अर्थ को जानकर किया गया जप मन और आत्मा पर गहरा आध्यात्मिक प्रभाव डालता है।
शास्त्र कहते हैं:
“देवो भूत्वा देवं यजेत्” — स्वयं को देवता के भाव में रखकर देवता की पूजा करो।
“यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।” — जैसी भावना होगी, वैसी ही सिद्धि प्राप्त होगी।
पूजा की पूर्णता और आरती:
पूजा एक साधना और ईश्वराराधना है।
यह अंतःकरण की पवित्रता और बाह्य विधि दोनों का समन्वय है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:
"जो भक्तिपूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल अर्पण करता है, मैं उस भक्तिपूर्ण अर्पण को स्वीकार करता हूँ।"
👉 यदि पूजा में कोई त्रुटि रह जाए, तो अंत में भगवान की आरती करने से पूजा पूर्ण हो जाती है।
यदि आरती की विधि ज्ञात न हो, तो भगवान नारायण की आरती करें, क्योंकि सभी पूजाएँ अंततः उनके चरणों में ही समर्पित होती हैं।
वे त्रिगुणातीत (सत्त्व, रज, तम से परे), परमात्मा और परब्रह्म हैं।